रविवार, अप्रैल 24, 2016

वो .... जो तनहा था

तेरे मेरे दरमियाँ केवल , इक यकीन का रिश्ता था !
मत  तोड़ना तू  इसको ,  मैंने  सौ  बार  कहा  था  !

यकीनन  ये दीवार थी  ,दरमियाँ मगर शीशे जैसी !
छू  नहीं  पाई  तुझको ,  दिखता  हर  लम्हा   था  !

किसके कहने पर आख़िर , तुमने उठाया था पत्थर?
बेज़ार  हुए  हम  दोनों , गया  जमाने का क्या था !

क्या करना है मुझे , अब  गुलाबी  कागज़ लेकर !
टूट गया  वो रिश्ता , जो  दिल में महकता  था  !

झूठ को सच मानने वालों ,अब ख़्वाब नहीं देखूंगी !
दिल से आह तो निकलेगी ,  ज़ख्म  जो  गहरा था !

क्यूँ   शोर  है  बरपा  ?  पूछें  हैं  लोग  आपस  में  ,
अरे  मर  गया  कैसे ?  वो...वो  जो  तनहा  था  !
_________________________________________ डॉ . प्रतिभा स्वाति

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