रविवार, अप्रैल 17, 2016

बेवकूफ बनना मेरी मज़बूरी है ....

 इसमें अचम्भित होने जैसा कुछ भी नहीं ! 
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 अंतर में , निरंतर 
जब भी / एक भाव ,
बहता है ! 
शेष कुछ भी / कभी
विशेष
 नहीं रहता है !

 वही भाव और अभाव !
बन जाता है स्वभाव !

 कहानी हो , गीत हो !
मौन हो , बातचीत हो !

लाख हों ,तर्क -वितर्क !
पर नहीं पड़ता फ़र्क !

माँ , जो तब,  ज़िद पे
 बहलाती थी !
उतने  सारे झूठ वो ,
कहाँ से लाती थी ?

सीखा होगा , उन्होंने 
अपनी माँ से !
बेटी जानती है झूठ 
आया कहाँ से !

इस झूठ को , माँ 
भूल जाती है जब !
सच समझा देती है
बड़े हो गए हो अब !

लेकिन सच ,सचमुच 
समझ नहीं आता है !
बूढ़े माँ- बाप को बच्चा
बेवकूफ़ बनाता है !

बस यहाँ मेरी बात 
अब पूरी हो चुकी है !
बेवकूफ बनना मेरी
मज़बूरी हो चुकी है !
_____________________ डॉ. प्रतिभा स्वाति

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